सहर काल का सफ़र
कुछ अलग सा प्रतीत होता था,
बेफ़िक्री के उन दिनों में
मन सोए बिन ख्वाबों में खोता था
क्या परवाह थी,
कौन क्या सोचे
मस्ती के थे वह सैर-सपाटे,
पगदंडी पर उड़ते धूल से
न जाने कितने सपनों को थे सजा जाते
समय की न फ़िक्र थी
ना उसे बचाना था सीखा
दोस्तों के दीदार को पाने
मिल ही जाता था कोई तरीका
मिट्टी के खेल से ही
खुश हो जाया करते थे
आज के खिलौनों में
वह खुशी ढूंढते नहीं मिलती
मोहलत में मिला समय था
निश्चिंत हमारा मन
आज की भाग दौड़ में
बस उन लम्हों का कर सकते हैं प्रत्यास्मरण
जीवन के इस दौर ने
हमारी उन यादों को फिर एक बार परखा था
समय की बलवानियत को
आज पहली बार चखा था
क्या ही थे वह दिन
जब साथी की थी तलाश
कुछ समय साथ बीते
तो मिलती थी हमें स्वास
आज की तेज़ी में
दूसरों को तो भूल ही जाओ
खुद की ही तलाश में
सारी जिंदगी निकल जानी है
चलते-चलते कहाँ आ पहुंचे
खुद ही को न ज्ञात हो पाया
आज पुनः उन यादों को पिरोह
झलका उस बचपन का साया
--Shreya Lal
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